बोतल की
अचानक खुल गई
कार्क की तरह
िबखर जाती है
हंसी
यहां, वहां, हर जगह
और सब कुछ
डूब जाता उसमें
दिुनया कुछ और
बेहतर लगने लगती है
जैसे अभी.. अभी..
धो, पोंछ कर
सजाया गया हो इसे,
कई कहािनयां अचानक
सच्ची लगने लगती हैं
पिरयां, चांद पर चरखा कातती बिुढ़या,
और वो देस
जहां सूरज जाता है रात गुज़ारने.
अच्छा लगता है...
के कुछ लोग
अब भी ऐसे हंस सकते हैं
यूं बेवक़ूफों की तरह....
क्योंिक दुिनया उनसे ही तो चलती है... सच्ची
Thursday, September 6, 2007
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