ज़रूरी बात कहनी हो
कोई वादा िनभाना हो
उसे आवाज़ देनी हो
उसे वापस बुलाना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं
मदद करनी हो उसकी
यार की dhandhas बंधाना हो
बहोत दैरीना रसतों पर
िकसी से िमलने जाना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं
बदलते मौसमों की सैर में
िदल को लगाना हो
िकसी को याद रखना हो
िकसी को भूल जाना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं
िकसी को मौत से पहले
िकसी ग़म से बचाना हो
हकीक़त और थी कुछ
उस को जाके ये बताना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं
- मुनीर िनयाजी
Thursday, December 13, 2007
Tuesday, December 11, 2007
Jebon Mein Padi Yaaden
जेबें हैं कई ऐसी
िजनके कई कोनो में
यादों का ज़खीरा है...
वो जलती हुई गर्मी
और साथ पसीने के
वो चाय, समोसे कुछ
या कोहरे भरे िदन में
जब कुछ नहीं िदखता था
िदख जाते थे िफर भी वो
जो ख्वाब थे उस िदन के
जब दिुनया भली होगी
और िसर्फ ख़ुशी होगी
वो बस जो हमें लेकर
शहर भर में घुमाती थी
बूढी सी थी, बेचारी
सब हड्डियाँ िहलती थीं
और शोर मचाती थी
अक्सर येही लगता था
ये आखरी िदन होगा
इस बूढी, िबचारी का,
पर अगली सुबह िफर वो
थोडी सी सज धज कर
थोड़ी सी नहा धो कर
स्टॉप पे आ लगती
है आज भी यादों में
उस बस के कई िकस्से
अब इतने बरस गुज़रे
पर आज भी लगता है
वो सुबह की बातें हैं....
चाय के वोही प्याले
अब भी कहीं रक्खे
ये सोच रहे हैं की
....हम आज नहीं आये!
िजनके कई कोनो में
यादों का ज़खीरा है...
वो जलती हुई गर्मी
और साथ पसीने के
वो चाय, समोसे कुछ
या कोहरे भरे िदन में
जब कुछ नहीं िदखता था
िदख जाते थे िफर भी वो
जो ख्वाब थे उस िदन के
जब दिुनया भली होगी
और िसर्फ ख़ुशी होगी
वो बस जो हमें लेकर
शहर भर में घुमाती थी
बूढी सी थी, बेचारी
सब हड्डियाँ िहलती थीं
और शोर मचाती थी
अक्सर येही लगता था
ये आखरी िदन होगा
इस बूढी, िबचारी का,
पर अगली सुबह िफर वो
थोडी सी सज धज कर
थोड़ी सी नहा धो कर
स्टॉप पे आ लगती
है आज भी यादों में
उस बस के कई िकस्से
अब इतने बरस गुज़रे
पर आज भी लगता है
वो सुबह की बातें हैं....
चाय के वोही प्याले
अब भी कहीं रक्खे
ये सोच रहे हैं की
....हम आज नहीं आये!
Saturday, November 17, 2007
Sardiyaan......
Thursday, September 6, 2007
Tumhare naam.....
बोतल की
अचानक खुल गई
कार्क की तरह
िबखर जाती है
हंसी
यहां, वहां, हर जगह
और सब कुछ
डूब जाता उसमें
दिुनया कुछ और
बेहतर लगने लगती है
जैसे अभी.. अभी..
धो, पोंछ कर
सजाया गया हो इसे,
कई कहािनयां अचानक
सच्ची लगने लगती हैं
पिरयां, चांद पर चरखा कातती बिुढ़या,
और वो देस
जहां सूरज जाता है रात गुज़ारने.
अच्छा लगता है...
के कुछ लोग
अब भी ऐसे हंस सकते हैं
यूं बेवक़ूफों की तरह....
क्योंिक दुिनया उनसे ही तो चलती है... सच्ची
अचानक खुल गई
कार्क की तरह
िबखर जाती है
हंसी
यहां, वहां, हर जगह
और सब कुछ
डूब जाता उसमें
दिुनया कुछ और
बेहतर लगने लगती है
जैसे अभी.. अभी..
धो, पोंछ कर
सजाया गया हो इसे,
कई कहािनयां अचानक
सच्ची लगने लगती हैं
पिरयां, चांद पर चरखा कातती बिुढ़या,
और वो देस
जहां सूरज जाता है रात गुज़ारने.
अच्छा लगता है...
के कुछ लोग
अब भी ऐसे हंस सकते हैं
यूं बेवक़ूफों की तरह....
क्योंिक दुिनया उनसे ही तो चलती है... सच्ची
Saturday, April 21, 2007
likh raha hoon junoo mein......
Yar ye blog ban to gaya magar ab kya......? kamal hai, ghar ho gaya hai apne paas magar rahe kaun, hame to ghar mein neend nahi aati, aur kiraye par diya to khali nahi hoga. zindagi mein itne pange pehle se the ab ye blog bhi aa gaya.... ab jhelo issey.
kya kahoon, Chacha Ghalib ne kaha tha 150 sal pehle....
Bak raha hoon junoo mein kya kya kuch,
Kuch na sakjhe Khuda kare koi.
khuda unka bhala kare...... filhal bas.......
kya kahoon, Chacha Ghalib ne kaha tha 150 sal pehle....
Bak raha hoon junoo mein kya kya kuch,
Kuch na sakjhe Khuda kare koi.
khuda unka bhala kare...... filhal bas.......
Monday, April 2, 2007
phir ek baar...
yaar pata nahi ki is baar kahan se shuru karoon,
pehli baar kafi koshish kar ke kuch lines likhi bheen to kambakht blog hi gayab ho gaya. magar hum bhi kamal ke jujharu insan hain... phir ek aur blog bana diya salaaaa
filhal kuch soojh nahi raha doston...is liye mafi... baqi agli baar
pehli baar kafi koshish kar ke kuch lines likhi bheen to kambakht blog hi gayab ho gaya. magar hum bhi kamal ke jujharu insan hain... phir ek aur blog bana diya salaaaa
filhal kuch soojh nahi raha doston...is liye mafi... baqi agli baar
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